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शब्दों का कैदी / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

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कुछ शब्द
सोच की सतह पर
तैरते रहते हैं अकसर
पकड़ना चाहा मैंने
मगर फिसल गये वे
किसी मछली की तरह।

अपना बनाना चाहा था
और इस कोशिश में
न जाने कहाँ-कहाँ से गुज़रना पड़ा
कभी दर्द कभी अकेलापन
कभी रिश्तों की चुभन।

इस दौरान विकसित हुई है एक कला
कला– शब्दों को सजाने की
कला– महसूस कर पाने की
कला– प्यार को लुटाने की
कला– प्यार में लूट जाने की

आज शब्दों पर मेरा हक़ तो नहीं
मैं शब्दों का कैदी ज़रूर हो गया हूँ।