धूप का टुकड़ा / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
कितनी मासूम-सी लगती है धूप सर्दी की
कितना मासूम-सा लगता है धूप का टुकड़ा
जैसे किसी कुतिया का ‘नन्हा-सा पिल्ला’
कैसे बैठा है मेरी जाँघों पर
काट खाएगा एक पल में मुझे
उसकी हरकत से पता चलता है
अटक जाता है गले में जब आवाज़ का ‘गुटका’
किस तरह ‘कें-कें’ शोर मचाता है
मेरे भतीजे ने कहा है मुझसे
कि घर के पीछे
बारी में ‘भूसकार’ के नीचे
एक कुतिया ने दिए हैं बारह बच्चे
उस 'भोलवा डोम' की बीबी तरह
जो अब भी सोचती है
साथ मिलकर बारह बच्चे
बारह रोटियाँ कमा कर लाएंगे
मगर इस बात से वाक़िफ़ है भोलवा
किसी भी काम न आएंगे बेटे
और ब्याह तो बेटी का करना पड़ेगा
और जब तक बड़े नहीं हो जाते हैं ये
उनकी ख़ातिर रोटियाँ होगीं जुटानी
सोचता है कि उसके पास गर पैसे होते
ख़रीद लाता बाज़ार से ‘कंडोम का पैकेट’
इसी कशमकश में आ बैठा है घर के बाहर
धूप से भूख मिटाने को अपनी हड्डी की
कितनी मासूम-सी लगती है धूप सर्दी की
कितना मासूम-सा लगता है धूप का टुकड़ा