भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आप अपनी आग के शोलों में जल जाते थे लोग / निश्तर ख़ानक़ाही

Kavita Kosh से
Purshottam abbi "azer" (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:30, 19 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निश्तर ख़ानक़ाही |संग्रह= }} Category:ग़ज़ल <poem> आप अप…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आप अपनी आग के शोलों में जल जाते थे लोग ।
क्या अँधेरा था कि जिससे रोशनी पाते थे लोग ।

गुफ़्तगू में ढूँढ़ते थे कान जज़्बों का सुराग़[1]
और जो कुछ जी में आता था सो कह जाते थे लोग ।

रूप का मंदिर भी देखा हर दरीचा[2] बन्द था
नीम उर्यां[3] जिस्म दीवारों पे लटकाते थे लोग ।

तूने ऐ पतझड़ के मौसम वह समाँ देखा नहीं
घर वो जब काग़ज़ के गुल-बूटे लिए जाते थे लोग ।

ख़ुदफ़रेबी[4] का धुँदलका भी ग़नीमत था कि जब
दिल को बेबुनियाद उम्मीदों से बहलाते थे लोग ।

और बढ़ जाती थी बाज़ारों की रौनक़ दिन ढले
घर के सन्नाटे से घबराकर निकल जाते थे लोग ।

काश इक पल अपनी मर्ज़ी से भी जीकर देखते
जाने किस-किस के इशारे पर जिए जाते थे लोग ।

शब्दार्थ:

   1. ↑ राज़
   2. ↑ खिड़की
   3. ↑ अर्धनग्न
   4. ↑ स्वयं को धोखा देना