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रेत की मझधार आओ प्रभु / राजेन्द्र जोशी

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कितना प्यार करते हो
तुम पत्थरों से
पत्थर के पहाड़ों से
यहीं पर
कहीं झरनें
कहीं नदी
कब से सोच रहे हो प्रभु पत्थर !
पत्थरों में सुगंध हैं !
सुख सुविधाओं का ख्याल
तुम भी करते हो प्रभु !
कभी मरूस्थल देखा हैं
दूर तक कोई पेड़ नहीं
रेत का समन्दर
रेत तपती हैं
तुम तो कभी तपिश में
आए ही नहीं
यहां भी तुम्हारे परिजन हैं
उनसे कब बात करोगें
वे तुम्हें याद करते हैं प्रभु!
तुम्हारा तो व्यापक क्षेत्र हैं
अपनी जटा के कुछ बाल
थार में भी फैला दो
हरियाली छांव
रेत में भी प्रभु
पानी धार चला दो !