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पेरिस / मधुप मोहता

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कल, फिर होगी सुबह।
बिस्तर से लिपटी हुई यादों के बीच,
तुम आंखें मलकर जागोगी,
और कोहरा खिड़की के कांच के पार,
तुम्हारे करीब सिमट आएगा।

ओस से पूछोगी तुम, कैसा होता है
भीगकर सराबोर हो जाने का अहसास।
कैसा होता है, एक दबी हुई मुस्कुराहट में छिपा
दर्द का भीगा, भीना, मौन आलिंगन।

उठोगी और दर्पण से पूछोगी
तुम परिचय, उस अपरिचित रहस्य का,
जिससे जीवन का आभास होता है।

पीड़ा के वातायन में सूखते पत्तों में,
लिखी, अस्फुट कविता का स्वर
निमंत्रण देता है मुझे
तुम तक लौट आने का।