भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सच / मधुप मोहता

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:20, 11 अक्टूबर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधुप मोहता |संग्रह=समय, सपना और तुम ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


तू मेरा सच तो है,
यकीन नहीं।
कितने मासूम अंधेरों में तलाशा था तुझे
कितने संगीन उजालों में तुझे पाया है।
कितना चाहता था कोई रिश्ता निभाऊं तुझसे
और जाना कि तेरा अक्स भी पराया है

स्याह रातों के कमज़ोर, तल्ख़ लम्हों में
बारहा तेरी याद आई है।
ये तेरे होंठ, तेरी ज़ुल्फें, ये तेरी बांहें
ये तू नहीं, तेरी परछाईं है।

कभी ख़्वाबों में, तसव्वुर में कभी
कितना चाहा है, चलूं हाथ थामकर तेरा
उफ़क के पार, कहीं दूर, बहुत दूर कहीं।

नींद से जाग गया हूं और ये पाया है,
मेरे पांवों तले ज़मीन नहीं।
तू मेरा सच तो है,
यक़ीन नहीं।