समय (1) / मधुप मोहता
मैं कैसे मान लूं
कि तुमने समय
का आविष्कार किया है ?
तुमने,
समय का संक्षिप्त इतिहास लिखा है ?
जिस समय ने
द्रौपदी के अपमान को महाभारत की
अभिव्यक्ति दी,
सीता के वनवास की सृष्टि की,
अहल्या को पुनः गति और
गांधारी को दिव्यदृष्टि दी ;
जिस समय ने
लुंबिनी के वनों में, हिमालय के
पाषाणों पर,
तक्षशिला की शिलाओं और
कुम्हरार के खंडित राजप्रासादों में,
बुद्ध को, गणेश को, चाणक्य को
शांति दी, शब्द दिए, शक्ति दी ;
जिस समय ने
अजंता को चित्र, नालंदा को विद्या,
श्रुति को स्वर, वासना को विषय,
सौंदर्य को श्रृंगार, संगीत को लय,
नृत्य को विधि, शिल्प को शैली।
भाव को भंगिमा, दर्शन को गरिमा,
युद्ध को द्वंद, रास को रंग,
विज्ञान को जिज्ञासा, यथार्थ को बोध,
बोधि को सत्व, पीड़ा को अश्रु,
और
संज्ञा को संबोधन दिया है ;
जिस समय ने
मंदाकिनी को, भागीरथी को,
गंगा में समाहित किया,
‘चरैवेति-चरैवेति’ की उपमा से,
जल को गंगा की उपाधि दी,
गंगा को सागर दिया, समाधि दी,
उस समय ने मनुष्य को आविष्कार किया है।
समय एक प्रागैतिहासिक संस्था है।
मै कैसे मान लूं, तुमने
समय का संक्षिप्त इतिहास लिखा है।