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समय (2) / मधुप मोहता

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समय एक सिंधु है,
स्वयं में कितनी संभावनाएं,
उल्लास, कितनी व्यग्रताएं, अवसाद,
उत्कंठाएं, अभिलाषाएं लिए
खड़ा है, समेटे सम्राटों
के वैभव,
युद्धों की विभीषिका के अवशेष।

आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और
श्रापों की परिभाषाएं
बांधे खड़ा है, अपनी मुट्ठी में,
कितने सन्निपात, कितनी पीड़ाएं,
कितने ज्वर व्यापे खड़ा है।
कितनी कुंठाओं का परिमार्जन
किया है समय ने।
समय का कोई इतिहास नहीं होता,
समय स्वयं इतिहास की समीक्षा है,
समय इति की परिणति है,
समय गति है, नियति है, प्रगति है।

समय के ललाट पर लिखा है,
व्यतीत और आशातीत।
भविष्य, वर्तमान और अतीत।
समय उद्देश्यों से ऊपर,
और परंपराओं के परे है।
केवल समय जानता है
परंपराओं के पराभव का कारण,
और उद्देश्यों की परिणति।

अनुभूति का विषय है समय।
रीति का, निति का, प्रीति का
विषय है समय।

देखो, समय हिलोरें ले रहा है,
हटो, बचो, समय की लहरों को
मुझसे टकराने दो।