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इलाहाबादी / त्रिलोचन
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काफ़े,रेस्त्राँ में हिलमिल कर बैठे । बातें
कीं; कुछ व्यंग्य-विनोद और कुछ नए टहोके
लहरों में लिए-दिए । अपनी-अपनी घातें
रहे ताकते । यों भीतर-भीतर मन दो के
एक न हुए, समीप टिके, अपनापा खो के,
जीवन से अनजान रहे, पर गाना गाया
जन का, जीवन का, लेकिन दुनिया के हो के
दुनिया में न रहे । दुनिया को बुरा बताया ।
उससे तन बैठे जिसने कुछ दोष दिखाया ।
इस प्रकार से ढले नवीन इलाहाबादी
कवि-साहित्यकार, जिन को भाती है छाया,
नहीं सुहाती । आँखों को भू की आबादी ।
जीवन जिस धरती का है । कविता भी उस की
सूक्ष्म सत्य है, तप है, नहीं चाय की चुस्की ।