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अधिकारी छाए थे / त्रिलोचन
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इन्द्र वरुण कुबेर से अधिकारी छाए थे,
शिविर सजे थे, धूलि कहाँ उन को लगती थी,
ख़ुद आए थे, अपनी ऐंठ अकड़ लाए थे,
कुंभ नगर में श्री इन के कारण जगती थी ।
तीर्थराज की रेणु जाहिलों को ठगती थी,
इन के स्पर्शों से पल-पल पवित्र होती थी,
होता था छिड़काव, बात रस में पगती थी
इन लोगों की । बेचारी जनता सोती थी
कल्पवास के श्रम पर, स्वेदबिंदु बोती थी
बंजर में, आसरा कर्म का ताक रही थी,
अलग-अलग भी धरती पर किस की गोती थी
गंगा कल-कल कल-कल कहती बीच बही थी ।
जनता में कब होगा जनता का अधिकारी,
कब स्वतंत्र होगी यह जनता टूटी-हारी ।