ज़िन्दगी यूं ही बीत गयी /वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
कब इस मन की दीवारों से
दुख की शीत गयी
ज़िन्दगी यूँ ही बीत गयी
जीवन सारा गया भटकते
असफलता का गरल गटकते
कुछ ना मिला हाथ हैं ख़ाली
हरदम रहे अभाव खटकते
दिन-रैनों की गागर सारी
नाहक़ रीत गयी
ज़िन्दगी यूँ ही बीत गयी
मन का महल हुआ है खंडित
होता रहा हमेशा दंडित
निर्माणों की घोर उपेक्षा
विध्वंसकता महिमा मंडित
टूटी छत सुधरी तो पीछे
वाली भीत गयी
ज़िन्दगी यूँ ही बीत गयी
रोये सत्कर्मों का रोना
आखि़र पड़ा पाप ही ढोना
था जीवन के लिए ज़रूरी
ऊँचा हृदय करें कुछ बोना
तोड़े नियम सभी फिर भी
हाथों से जीत गयी
ज़िन्दगी यूँ ही बीत गयी
अनचाहे समझौतों वाले
दिन गुज़रे सब काले काले
तन-मन दुखने लगा कौन अब
आशाओं का बोझ सम्हाले
सतरंगे सपनों से अब तो अपनी
अपनी प्रीत गयी
ज़िन्दगी यूँ ही बीत गयी