भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यूं न देखा करो मुझे अपलक/वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

Kavita Kosh से
Tanvir Qazee (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:55, 25 अक्टूबर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला' |संग्रह=सुब...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यूँ न देखा करो मुझे अपलक
दुनिया वालों को हो गया है शक

क्यों न हो आँधियों को हैरानी
अब भी रौशन है आस का दीपक

तुझसे अब क्या शिकायतें ऐ रात
सुन रहा हूँ मैं सुब्ह की दस्तक

कुछ भी हो नफ़रतों की दीमक से
रखना महफूज़ प्यार की पुस्तक

किसने दंगाइयों के नाम किये
राम, ईशू, रहीम, गुरू नानक

दिन की मंज़रकशी करें आओ
उनको रचने दो रात का रूपक

ऐ ‘अकेला’ ये कैसा नाटक है
वो ही नायक है वो ही खलनायक