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कहीं लगता नहीं हर शै से अब तो मन उचटता है /वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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कहीं लगता नहीं हर शै से अब तो मन उचटता है
तुम्हारे बिन तो इक-इक दिन बड़ी मुश्किल से कटता है

मैं तंग आया हूँ इस खिलवाड़ से ऐ मेरे चारागर
ये कैसा रोग है मुझको न बढ़ता है, न घटता है

लगा है झूठ के ग्रन्थों में जाने कौन सा काग़ज़
मैं कोशिश कर रहा हूँ एक भी पन्ना न फटता है

कहा जो आज उसने कल भी कह देगा भरोसा क्या
यहाँ तो आदमी हर पल बयाँ अपने पलटता है

वो पूरी फ़ौज-पलटन आँधियों की लेके आयेगा
किसी दीपक से अँधियारा ‘अकेला’ कब निपटता है