उत्सव / पद्मजा शर्मा
मैं चुक रही हूँ
तिल-तिल मर रही हूँ
मैं मर चुकी हूँ
उत्सव प्रधान देश है भारत
आओ मनाएं मौत का उत्सव और हँसें
हँसते हुए ही मनाये जाते हैं उत्सव
मौत के मायने यही नहीं कि शरीर से साँस गयी
बल्कि कभी-कभी साँस अटकी रहती है
और उसके साथ धीरे-धीरे
चलती रहती है मौत दबे पाँव जीवनपर्यंत
और हम जान ही नहीं पाते कि
जी रहे हैं कि मर रहे हैं
इंसान हैं कि ज़िदां लाश
हम उसे कंधों पर ढो रहे हैं कि वह हमें
अचानक किसी दिन हमारे अपने
उस शरीर को अग्नि दे देते हैं
यह कहकर कि ‘हंसा उड़ गया !’
वे जानते हुए भी अनजान बने रहते हैं इस बात से
कि हंसा तो कब की देह छोड़ चुका
अब तक तो मात्र ख़ोल बचा था
जो डोल रहा था
अपनी भूलकर औरों की भाषा बोल रहा था
उसके कर्मों का, जीवन का, साँसों का
इतना ही मोल रहा था
कि एक गयी तो क्या दूसरी ले आयेंगे
श्मशान से लौटते वक्त ही कोई बोल रहा था।