हे राम! / विजय कुमार पंत
गर्दो गुबार में खो गए सारे नाम
बेच डाले कारोबारियों ने ढंग तमाम
मर्यादा तार-तार नंगा आवाम
पैदा होने वाला कहता है
हे राम !
क्यूँ ले आये मुझे जहन्नुम में
क्यूँ कर डाली मेरे जीवन की शाम
मैं भी डूब जाऊँगा इस सैलाब में
मिटाता रहूँगा तेरा नाम
हे राम !
तेरी मर्यादा यहाँ रोज़ तार-तार होती है
बेटी बाप के साथ रहने में भी रोती है
हर खंडहर, घर, महल लूटता है इज्ज़त
सिसकियाँ रह-रह कर घाव धोती हैं
महात्मा जूते खाते हैं, चोरो को होता सलाम
हे राम !
गाँधी किताबों, चलचित्रों में बिकता है
देखता है अपने आजाद नौनिहालों को सिसकता है
कृष्ण भी डर कर छोड़ चुके हैं रण भूमि
कंस भी इतने कन्सो को देख कर झिझकता है
मार -कट लूटपाट भक्त करता है
नहीं है ये विद्वान रावन का काम
हे राम !