डिग्रियों का बोझ लिए घूमता
बेटा धुएं में गिरफ्त
बेटी आँसुओं से लिप्त
खुद अंगारे पर बैठा आदमी
न कालिदास है/न शंकराचार्य
न मंडन मिश्र का गुरु कुमारिल भट्ट
मेरी आँखें गवाह हैं –
वह घुरहू है मेरे गाँव-जवार का
जो जीते जी बन गया है घूर !
वह काटता है वक्त
दाँत से नाखून की तरह
खटता है दोनों जून
खाता है एक जून
गाँव की डगर छोड़
निकला शहर की ओर
काम की तलाश में
जो खो गया सुई की तरह
फिर भाड़े पर खींचने लगा रिक्शा
सोचा – बेहतर है माँगने से भिक्षा
बस पालता रहा पेट
चुकाता रहा भाड़ा
कुछ न भेज सका अपने घर
घर सिसकने लगा
घर सिर्फ मकान नहीं होता
मकान केवल दीवार नहीं होता
दीवार मात्र माटी नहीं होती
और माटी सिर्फ माटी नहीं होती !
उसे देख संविधान झुकाता रहा आँखें
लोग होते रहे पिछौंड़
एक दिन अचानक
घर से आया तार
दिल हुआ बेतार
जीवन तार-तार ।