मोर्चे पर बच्चा / सुभाष शर्मा
माँ बच्चे के साथ
तुतलाती है,
बोलती है
मुँह बनाकर
थपथपाकर देह
चुप कराना चाहती है
पर पूछता है बच्चा बार-बार
माँ से बाप का नाम
माँ सिर झुकाकर/मुँह लटकाकर
सिर्फ कहती है –
"हाय वियतनाम ! वियतनाम !"
लेकिन बच्चा
निप्पल लगे रेडिमेड दूध जैसे
इस उत्तर से मुँह मोड़ लेता है
फिर बूढ़ों का-सा सवाल करता है—
लेकिन फौजी भाई ?
उनकी महीनों से क्यों चिट्ठी नहीं आई
यह सुनते ही
माँ का गाल
उसके बायें हाथ पर गिरकर
थम-सा जाता है,
बहने लगती है
उसके आँसुओं की गंगा
मुँह से फेंचकुर की तरह
दो शब्द गिरते हैं –
"हाय श्रीलंका !"
तीसरी बार सवाल पूछने
की हिम्मत बच्चे की नहीं होती,
माँ को और 'हाय'
कहने की नौबत नहीं आती
बच्चा अंदाज लगाता है –
इस बार कहीं माँ
अपना गला न घोंट ले,
उसका कान उमेठ
उसे मालदीव न भेज दे !
कारण ---
अब उसी का नम्बर है
फिर छिड़ा समर है
भले वह अभी बच्चा है,
पर मोर्चे पर जाने को
बस वही बचा है !