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ख़्वाब हो तुम या कोई हकीकत / मजरूह सुल्तानपुरी
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ख़्वाब हो तुम या कोई हक़ीक़त
कौन हो तुम बतलाओ
देर से कितनी दूर खड़ी हो
और करीब आ जाओ
सुबह पे जिस तरह, शाम का हो गुमार \- (२)
ज़ुल्फ़ों में एक चेहरा, कुछ ज़ाहिर कुछ निहार
धड़कनों ने सुनी, एक सदा पाओं की \- (२)
और दिल पे लहराई, आँचल की छाओं सी
मिल ही जाती हो तुम, मुझको हर मोड़ पे \- (२)
चल देती हो कितने, अफ़साने छोड़ के
फिर पुकारो मुझे, फिर मेरा नाम लो \- (२)
गिरता हूँ फिर अपनी, बाहों में थाम लो