अंतरंग / नरेन्द्र शर्मा
मिलता ही नहीं कहीं कोई जन अंतरंग!
दुर्वह जीवन-प्रवाह, दुर्लभ क्षण अंतरंग!
डाल-डाल, पात-पात, लाखों एकांत नीड़,
बाहर है, भीतर भी कोलाहल-भरी भीड़,
उड़ा-उड़ा फिरता है अतिस्वन मन अंतरंग!
रूठा है मुझसे ही मेरा मन शशिकुमार,
मना नहीं पाता मैं चिंता का लिए भार,
रखकर मैं भूल गया मनोनयन अंतरंग!
हाल बहरहाल और चाल यही बेढंगी,
नयन-श्रवण अंतर्मुख दृष्टि-सृष्टि बहिरंगी,
रख दी बंधकी कहीं स्वर्ण-किरण अंतरंग!
हाथ नहीं आता है साथी विज्ञान-साध्य,
मेरा अपराध क्षमा करने को वह न बाध्य,
अपना हो कौन, न जब अपनापन अंतरंग!
संवेदनहीन नहीं, साथी रोता होगा,
नंदनवन बीच कहीं मोती बोता होगा!
होगा अंकुरित हृदय भावप्रवन अंतरंग?
अंतरंग साथी के बिना थका ऊबा मैं!
सूरज के संग न क्यों सिंधु-मध्य डूबा मैं?
रवि कवि की जन्मभूमि अगम गगन अंतरंग!