भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जीवन के अँधेरों में / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:49, 7 दिसम्बर 2011 का अवतरण (' मेरे आँगन उतरी सोनपरी लिये हाथ में वह कनकछरी अर्धमु...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे आँगन उतरी सोनपरी लिये हाथ में वह कनकछरी अर्धमुद्रित उसकी हैं पलकें अधरों पर मधुघट छलके कोमल पग हैं जादू-भरे डग मुदित मन हो उठा सारा जग नत काँधों पे बिखरी हैं अलकें वो आई तो आँगन भी चहका खुशबू फैली हर कोना महका देखे दुनिया बाजी थी पैंजनियाँ ठुमक चली ज्यों नदिया में तरी सबकी सोनपरी । -0- </poem>