भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मधुर मधुर दीपक जलता है / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:42, 7 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी |संग्र...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मधुर मधुर दीपक जलता है
तिमिराच्छन्न निशा का अंचल जल-जल कर ज्योतित करता है।
अखिल विश्व के सो जाने पर
शांत-स्तब्ध निशि हो जाने पर
कठिन तपस्वी-सा यह बन कर
रजनी-भर एकांत सतत अपनी धूनी रमता रहता है।
मृदुल स्नेह-पूरित उर लेकर
जीवन की आहुति दे-देकर
निशा-सुंदरी को स्वर्णिम कर
खोता निज अस्तित्व किंतु फिर भी मस्तक ऊँचा रखता है।
जग कहता—रे यह जल-जलकर
देता क्या? ‘कालिमा निरंतर’
किंतु वही कालिमा लगाकर
विश्व विहँस निज नयनों का सुंदर शृंगार किया करता है।
गात बना मिट्टी का केवल
किंतु रूप है कितना उज्जवल
और आत्मा में कितना बल
लख कर स्नेह-शून्य अपना अंतर क्षण-भर में ही बुझता है।