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पावस-प्रभात झरना / जयशंकर प्रसाद

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नव तमाल श्यामल नीरद माला भली

श्रावण की राका रजनी में घिर चुकी,

अब उसके कुछ बचे अंश आकाश में

भूले भटके पथिक सदृश हैं घूमते।

अर्ध रात्री में खिली हुई थी मालती,

उस पर से जो विछल पड़ा था, वह चपल

मलयानिल भी अस्त व्यस्त हैं घूमता

उसे स्थान ही कहीं ठहरने को नहीं।


मुक्त व्योम में उड़ते-उड़ते डाल से,

कातर अलस पपीहा की वह ध्वनि कभी

निकल-निकल कर भूल या कि अनजान में,

लगती हैं खोजनें किसी को प्रेम से।


क्लान्त तारकागण की मद्यप-मंडली

नेत्र निमीलन करती हैं फिर खोलती।

रिक्त चपक-सा चन्द्र लुढ़ककर हैं गिरा,

रजनी के आपानक का अब अंत हैं।


रजनी के रंजक उपकरण बिखर गये,

घूँघट खोल उषा में झाँका और फिर

अरुण अपांगों से देखा, कुछ हँस पड़ी,

लगी टहलने प्राची के प्रांगण में तभी ॥