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देख ली हमने मसूरी / रामनरेश त्रिपाठी

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देख ली हमने मसूरी, मिट गई है साध मन की,
स्वर्ग आ पहुँचे बिना तप, देख ली यह शक्ति धन की।
प्राकृतिक सौंदर्य इसका, देखकर जी चाहता है,
बस, यहीं बस जायँ पंक्षी बन, न याद आए वतन की।

चोटियों तक पर्वतों पर लद रहीं हरियालियाँ हैं,
मोतियों के हार-सी सड़कें गले उनके पड़ी हैं।
नाम है जिसका मसूरी, एक है ऊँची पहाड़ी,
कोठियाँ छोटी बड़ी चोटी तलक जिस पर खड़ी हैं॥

माल, केमल-बैक दो बहनें-सरीखी खास सड़कें,
यात्रियों के जी लुभाने के लिए हैं राह खोले।
सैकड़ों रिक्शा-कुली हैं, हाँफते हैं, तर-बतर हैं,
कुछ खड़े कुछ चल रहे हैं डाँडियाँ, घोड़े व झोले॥

धूल-धक्कड़ की मुलायम राह केमल-बैक की है,
घूमते उस पर मिलेंगे या तो कुत्ते और घोड़े।
या मिलेंगे दीर्घ-रोगी और बच्चे गाड़ियों में,
दासियाँ काली-कलूटी, कौन उन पर आँख फोड़े॥

माल की पूछो न कुछ वह मालदारों की सड़क है,
साफ-सुथरी और चिकनी वह बड़ी मनमोहिनी है।
हैं सिनेमा-घर उसी पर, होटलों की हैं कतारें,
कुल-हरी कुल्हड़ी वहाँ अलकापुरी सी सोहनी है॥

आदमी के रूप में मच्छर वहाँ पतलून पहने,
मुँह बनाए ताकते चुप-चाप सेवा को खड़े हैं।
कोई टेलर, कोई सेलर, कोई मोची, कोई ब्रोकर,
चूसने में जेब के उस्ताद वे सचमुच बड़े हैं॥

रोज संध्या को वहाँ पर एक प्रोसेशन किसी का,
है निकलता साथ लेकर सेठ, तालुकदार, राही—
साधु, सन्यासी, कुली, सधवा, खसम-खा, वृद्ध, बच्चे,
दास, दासी, रानियाँ, राजे, महाराजे, सिपाही॥

क्या किसी का ब्याह है? या पुत्र जनमा है किसी के?
रोज बन-ठनकर निकलते लोग हैं जैसे बराती।
कुछ पता चलता नहीं, यह शौक क्यों पैदा हुआ था?
और कब से इस मसूरी को लगा यह साढ़साती॥

पुस्तकालय से चलेंगे जायँगे बाजार कुल्हड़ी,
लौटकर फिर खाट लेंगे, यह पहेली क्या बला है?
रोज का धंधा यही है, स्वांग भर-भर के दिखाना,
यह किसी का शाप है? या रूप-रसिकों की कला है??

दोपहर से पाँच तक करके सफाई और मेकप,
पोतकर मुँहपर सफेदी और होंठों पर ललाई।
जान पड़ता है कि लेटर बक्स है पोशाक पहने,
शाम को सब अप्सराएँ रोज पड़ती हैं दिखाई॥

नौजवानों की न पूछो, साहबी पोशाक में वे,
तेल, साबुन, क्रीम से अपना अजब चेहरा बनाए।
लेडियों की बैटरी चारों तरफ अपने लगाए,
चार्ज होते चल रहे हैं शान से पलकें उठाए॥

धोतियाँ हैं जान पड़तीं भीड़ में धब्बा लगा है,
बस, यहाँ पतलून, साड़ी, फ्राक की भरमार-सी है।
नारियों का मुँह यहाँ हर एक नर है देख लेता,
माल पर बहुरूपिनों का मुँह नहीं है, आरसी है॥

रंग काला है किसी का, पोतकर वह भी सफेदी,
रात पर दिन की सवारी की छटा दिखला रही है।
है नहीं सूरत भली, तो क्या गले पड़ना उसे है?
दर्शकों की नाक-भौं फिर क्यूँ सिकुड़ती जा रही है??

लेडियों के दाँत सुंदर मोतियों की पाँत से हैं,
खिलखिलाती हैं तो बिजली कौंध जाती माल पर है।
किंतु उनके लाल होठों से दहलता है कलेजा,
नोच खाया है किसी को? कुछ लगा-सा गाल पर है॥

सामने से लहर पर है लहर हूरों की निकलती,
बेंच पर बैठे हुए कुछ लोग आँखें सेंकते हैं।
ध्यान में अपनी जवानी के दिनों की याद करके,
वे कलेजा थामकर लाचार आहें फेंकते हैं॥

बुझ गई जिनकी जवानी, राख सिर पर छा रही है।
भीड़ में वे भी भिड़े हैं, धीरे धीरे बढ़ रहे हैं।
माल पर दो तीन जगहों में चढ़ाई है करारी।
किंतु आँखें टाँगते वे भी मजे में चढ़ रहे हैं॥

जो ज़रा जरदार हैं, शौकीन हैं, कुछ मनचले भी,
देख पहनावे नए कल के लिए कुछ चुन रहे हैं।
किंतु रँड़ुवे और जिनकी देवियाँ सीता-सती हैं,
वे जहर के घूँट पी-पीकर खड़े सिर धुन रहे हैं॥

बीच में गंदे-पुराने जाकिटों से अंग ढाँके,
झुंड कुलियों के, कढ़ी में कोयले से चल रहे हैं।
कौन उनको देखता है? लोग तो आँखें गड़ाए,
स्वर्ग का सुख पी रहे हैं, या हथेली मल रहे हैं॥

यह न समझो, भीड़ में छैले-छबीले ही जमा हैं,
वृद्ध दढ़ियल और स्वामी लोग भी आते नज़र हैं।
क्यों गए वे, रूप के होंगे रसिक, या कौन जाने,
ब्रह्म की कुछ शोध में वे मस्त हैं, काफी सुघर हैं॥

किंतु यह उनका समागम दीखता बे-मेल-सा है,
वर-वधू की रात पहली और गीता-पाठ-सा है।
इंद्र का सुंदर अखाड़ा, अप्सराओं का नजारा,
इस मजे के बीच अष्टावक्र जी का काम क्या है??

कुछ अभागे रूप के बाजार की आजादियों पर,
धर्म की देकर दुहाई राह चलते रो रहे हैं।
किंतु जिनको आदमी होना नहीं अगले जनम में,
बेफिकर वे मौज में हैं, उस तरफ से सो रहे हैं॥

लौटकर जब जायँगी घर स्वाँगवाली लेडियाँ ये,
सास के आगे खड़ी हो जायँगी बाघिन-सरीखी।
दम भरेगा पुत्र तो हो जायगा पंक्चर उसी दम,
क्योंकि है उसके लिए तो कील चितवन एक तीखी॥

लौटकर घर जायँगे वे घाव खोजेंगे जिगर के,
होश में बेहोश बैठे फिल्म-सा देखा करेंगे।
मूँद कर आँखें किसी के गाल पर मुँह मार लेंगे,
या किसी की चोटियों की ओट से आहें भरेंगे॥

नाक थी कैसी नुकीली, आँख थी मानो कटारी,
ओंठ थे पत्ते जहर के, गाल थे मानो अंगारे,
लौट जायेंगे मसूरी से यही लेकर कमाई,
वक्त घर का और खोयेंगे मियाँ-मिट्ठू हमारे॥

और सड़कें भी कई हैं, साफ छायादार भी हैं,
क्यों न उनका लाभ लेते? माल ही पर क्यों फिदा हैं?
अक्ल की क्या बात है यह, हो गई जब जेब खाली,
जिस तरह आए वही सूरत लिए होते बिदा हैं??

रंग से या पाउडर से और मेकप की कला से,
कोई बीबी साहिबा टीबी छिपा सकती नहीं हैं।
स्वास्थ्य तो स्वर्गीय धन है, वह तपस्या से मिलेगा,
मुँह बनाकर कोई उसको मुफ़्त पा सकती नहीं हैं॥

है जवानी ही जवानी का सही शृंगार यारों!
रूप को गहना अगर कुछ चाहिए तो सादगी है!
कोई कितना ही करे शो पत्र लिखकर या ज़बानी,
प्रेम की सच्ची मिठाई तो विरह में याद की है॥

क्यों पड़े हो? उठ खड़े हो, साँस लो ताजी हवा में,
घुड़सवारी का मजा लो, या कि पैदल ही पधारो।
दूर से आए हुए हो, रोग कुछ लाए हुए हो,
क्यों न तगड़े और बनकर घर-गिरस्ती में सिधारो॥

स्वास्थ्य की सुंदर जगह है, ठीक ठंढी है मसूरी,
गरमियों का कैंप नैनीताल क्यों सरकार का है?
ताल की बेशक कमी है, पर यहाँ पर माल तो है,
और वैसा ही सुभीता सेठ-तालुकदार का है॥

गाल आ पहुँचे सतह पर, है मसूरी को बधाई,
अब नहीं ईश्वर करे आना यहाँ का हो जरूरी।
देख ली हमने मसूरी, हो गई है साध पूरी,
लौटने पर स्वर्ग की बढ़ जाएगी कुछ और दूरी॥



मई १९४६ में मसूरी में लिखित