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नींद / संध्या गुप्ता

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यह कोई बहुत व्याकुल कर देने वाली
जैसे युद्ध के दिनों की नींद है

देखना-
जैसे हहराकर वेग से बहती हुई नदी को

जैसे समुद्र पार करने की इच्छा से भरी
चिड़ियों का थक कर अथाह जल-राशि में
समाने के पहले की अनुभूति

यह उम्र बढ़ती जा रही है
घट रहा है हमारे भीतर आवेग
मिट रही हैं स्मृतियाँ उसी गति में

मेरी व्याकुलता
जैसे लड़ाई के दिनों में एक सैनिक का
परिवार को लिखा पत्र
और उसके लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाने की पीड़ा में
घुला जीवन !

बहुत धीरे-धीरे व्यतीत हो रहा है यह समय
हमारे ही बुने जाल में
बड़े कौशल से उलझ गई है हमारी नींद

जैसे
मैं किसी सौदे में व्यस्त हूँ
और खिड़की से बाहर कोई रेल मेरी नींद में
धड़धडाती हुई गुज़र रही है रोज़ !