भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अधूरा मकान-2 / संध्या गुप्ता
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:19, 12 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संध्या गुप्ता }} {{KKCatKavita}} <poem> कोई मकान...' के साथ नया पन्ना बनाया)
कोई मकान अधूरा क्यों रह जाता है !!
सलीब की तरह टँगा है
यह सवाल मेरे मन में
अधूरे मकान को देख कर
मुझे पिता की याद आती है
उनकी अधूरी इच्छाएँ और कलाकृतियाँ
याद आती हैं
देख कर कोई अधूरा मकान
उम्र के आख़िरी पड़ाव में
एक स्त्री के आँचल में
एक बेबस आदमी का
बच्चे की तरह फफकना याद आता है
अतीत में आधी-आधी रात को जग कर
कुछ हिसाब-किताब करते
कुछ लिखते
एक ईमानदार आदमी का चेहरा सन्नाटे में
पीछा करता है
एक अकेले और थके हुए आदमी की पदचाप
सुनाई देती है सपने में
कोई मकान अधूरा क्यों रह जाता है !!