बींट बोल पर / पीयूष दईया
बींटों की बांबी-सी बन जाती पर कबूतरी गुटरगूं कभी बंद नहीं होती।
फ़िजूलगोई अदला-बदली करती लगती मुहिमजोई से।
पिछले नातों पर कानाफूसी चलती रहती पर वह कान नहीं देता। साफ़ ज़बान की नीयत पर छोड़ देता। नाटे नाते सब बेवजह टूटने लगते। तपाक तपाक। डीलडौल ढह जाता। कतिपय कमबख़्त चहलकदमी करने लगते। फोकटी फदफद करते रंजित रजील। रातों के साल। खुरदरे ऐतराज़ों वाला अपना कहना जारी रखते। सारे नेक काम वहां करते रहते जहां किसी की नज़र नहीं जाती। कहीं जुर्रतें खूंटी पर लटकी बोसिदा बरसाती मानिन्द लगने लगती तो कहीं मौजूद लोग कूच कर जाते।
नज़रचोर का आना-जाना बना रहता।
कभी वाकई बरस पड़ता , कभी दरवाज़े में सर डाल कर हामी भरता। अपने साथ किये गये हर पहलू बाबत सुलूक को याद रखना ठीक लगने लगता। यूं अपने खौलाते ख़ून को दराजों में डाल लेता। गाफिल घड़ियां काम अपना बदस्तूर करती रहती। सारी ज़िदगी की नेकनामी बरबाद कर दी जाती पर इस तर्जमय रवैये को समझना बहुत मुश्किल जान पड़ता। सुलह के लहजे का सच आखिर एक मज़ाक़ बन जाता। पछतावे के तौर पर जाना जाने लगता। मरघिल्ला मामला इतना गया-गुजरा लगता कि कोई भी आगे सिफारिश तक करने की ज़हमत नहीं उठाता। होशियारी से मुलाकातें टाल लेते हज़रतों की हवाइयां तब भी उड़ने लगती। क्षणार्ध में कौंधते कुल निचोड।
किसी जलते लाक्षागृह की याद दिलाते।
अफवाहों के धूमिल स्वर फैलने लगते तो यह ख़बर की तरह होता। सारे निदान निरस्त होते चले जाते। हैरान कि यह कैसे पर वह सिर-पैर तक नहीं जान पाता। सब कुछ ढाक के तीन पात में बदल जाता।
ऐसे कि मादरजात जिद्द पर अड़ा रहता और कसूरवार करार दे दिया जाता।