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जब मैं कविताएँ पढ़ूँ / पीयूष दईया

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देखना
जब मैं कविताएँ पढ़ूँ
तब सभागृह में कोई न हो
जैसे भाषा या जीवन में

पढ़नेवाला
तो कत्तई नहीं
और सुननेवाला कल्पना तक से बाहर

और दर्शक भी
न रहे

आत्मा
जब मैं कविताएँ पढ़ूँ

लिखता हुआ मिलूँ