भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वह भी आदमी है / रमेश रंजक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:12, 14 दिसम्बर 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोलकाता में एक रिक्शा-पुलर को देखकर

अब यहाँ से तीर-सी आवाज़ देना लाज़मी है
ढो रहा है जो आदमी की देह, वह भी आदमी है

पेट पाँवों को भगाता है
मगर क्या इस तरह से
है नहीं मंज़ूर, देखूँ
आदमी को इस सतह से

इक ग़रीबी के सिवा इस आदमी में क्या कमी है ?

भेद यह बोया गया है
महल की चालाकियों से
और फैलाया गया, कुछ
पालतू बैसाखियों से

इसलिए ईमान की असहाय आँखों में नमी है