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द्वन्द्व की भाषा / रमेश रंजक

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जन्म लेने में अगर
असमर्थ है सूरज
काट पत्थर की किवाड़ों को
भूल जा गिनती-पहाड़ों को

ये ध्वजाएँ कमर तक आएँ
टूट जाएँ परिधि-रेखाएँ
रेल की पटरी सरीखा, तू
लाँघ जा ऊँचे पठारों को
भूल जा गिनती-पहाड़ों को

उठा ले सूरज किरण आए
जागरण का गीत लहराए
दोपहर के द्वन्द्व की भाषा
बाँचता जो बेसहारों को
काट पत्थर की किवाड़ों को