भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ध्वज कमीज़ों के / रमेश रंजक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:14, 14 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक |संग्रह=मिट्टी बोलती है /...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काग़ज़ी पक्के इरादे
चीड़ के झीने बुरादे की तरह झर जाएँगे
जब किनारेदार लोहे की सतह पर आएँगे

एकजुट हो जाएँगे जिस दिन सुबह के वास्ते
ढूँढ़ ही लेंगे तुम्हारे रास्तों में रास्ते
उत्तरायण सूर्य की किरणें पकड़ हमदम
किले की दीवार पर लहराएँगे
जब किनारेदार लोहे की सतह पर आएँगे

भीड़ को जिस दिन समझ आ जाएगी
और थोड़ी शंखधर्मी रोशनी पा जाएगी
बोलने लग जाएगी भाषा जुलूसों की
ध्वज कमीज़ों के वहाँ फहराएँगे
जब किनारेदार लोहे की सतह पर आएँगे