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मुझे क्या डर है / रमेश रंजक
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मेंहदी कह चुकी है
कह रही है— मुझे क्या डर है
धूप हो या शीत हो, बरसात
सुनो ! मेरी क्रान्तिधर्मी जात
खड़ी हूँ जब तक, तुम्हारी हैज
देह मेरी फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
तोड़कर जिस दिन मुझे
शैतान पीसेगा
उसी दिन उन उँगलियों पर
ख़ून दीखेगा
'हरापन' मेरा सफ़र है
और पिस जाना ख़बर है
...मुझे क्या डर है