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साम्राज्ञी का नेवैद्य-दान / अज्ञेय

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हे महाबुद्ध !
मैं मन्दिर में आई हूँ
रीते हाथ :
फूल मैं ला न सकी ।

औरों का संग्रह
तेरे योग्य न होता ।

जो मुझे सुनाती
जीवन के विह्वल सुख-क्षण का गीत—
खोलती रूप जगत़् के द्वार, जहाँ
तेरी करुणा
बुनती रहती है
भव के सपनों, क्षण के आनन्दों के
रह : सूत्र अविराम—
उस भोली मुग्धा को
कँपती
डाली से विलगा न सकी ।

जो कली खिलेगी जहाँ, खिली,
जो फूल जहाँ है,
जो भी सुख
जिस भी डाली पर
हुआ पल्लवित, पुलकित,
मैं उसे वहीं पर
अक्षत, अनाघ्रात,अस्पृष्ट, अनाविल,

हे महाबुद्ध !
अर्पित करती हूँ तुझे ।
वहीं-वहीं प्रत्येक भरे प्याला जीवन का,
वहीं-वहीं नैवेद्य चढ़ा
अपने सुन्दर आनन्द-निमिष का,
तेरा हो,
हे विगतागत के, वर्त्तमान के, पद्मकोश !
हे महबुद्ध !