भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लन्दन डायरी-17 / नीलाभ
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:06, 19 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीलाभ |संग्रह=चीज़ें उपस्थित हैं / ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
आओ, मेरे पास आओ, मेरे दोस्तो
ताक़त और गर्मी से भरे अपने हाथ
मेरे हाथों में दे दो
तुम कोई भी हो
किसी भी रंग के
काले, भूरे, पीले, गोरे
कोई फ़र्क नहीं पड़ता
हमारी लड़ाई गोरे रंग से नहीं
गोरे साम्राज्यवाद से है दोस्तो
जिसके लिए
वेल्स की कोयला खदान में काम करता है पैडी
स्वराज पाल से ज़्यादा ख़तरनाक है
आओ, मेरे पास आओ, मेरे दोस्तो
चमकते हुए फ़िकरों का सरमाया नहीं है
मेरे पास
सुबह की ओस की तरह
ताज़े हैं मेरे शब्द