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लो एक बजा दोपहर हुई / भारत भूषण

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लो
एक बजा दोपहर हुई
चुभ गई हृदय के बहुत पास
फिर हाथ घड़ी की
तेज सुई

पिघली
सड़कें झरती लपटें
झुँझलाईं लूएँ धूल भरी
किसने देखा किसने जाना
क्यों मन उमड़ा क्यों
आँख चुई

रिक्शेवालों की
टोली में पत्ते कटते पुल के नीचे
ले गई मुझे भी ऊब वहीं कुछ सिक्के मुट्ठी में भींचे
मैंने भी एक दाँव खेला, इक्का माँगा पर
पर खुली दुई

सहसा चिंतन को
चीर गई आँगन में उगी हुई बेरी
बह गई लहर के साथ लहर कोई मेरी कोई तेरी
फिर घर धुनिये की ताँत हुआ फिर प्राण हुए
असमर्थ रुई