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पगडंडी की देह / रमेश रंजक
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ऊँची अभिव्यक्ति
नीची बातें
परवत-नद्दी की चौहद्दी
जिनमें भटके
आदम, गद्दी
इनसे बहुत परे
शब्द, अर्थ की दुनिया वाले
फिरते डरे-डरे
हवा न छुए जिस्म
न कोलाहल को पकड़ें
कान
आँख न देखे
दृश्य जगत के
दुर्बल, बेईमान
ऐसे चन्द विदेह
बिवाई वालों को ख़तरे
कौन शब्द है
कौन अर्थ है
मुझको यह संदेह
जिसने नापी नहीं
धूप की
पगडंडी की देह
ख़ुशबू के चरित्रधारी ही
खरे नहीं उतरे