भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वृक्ष है छतनार / रमेश रंजक

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:39, 22 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक |संग्रह=मिट्टी बोलती है /...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गीत में गति
बँध नहीं पाती समय की
झूठ है रे !

यह शगूफ़ा है, तरल भ्रम सिर्फ़ उनका
छन्द से कतरा रहे हैं जो
दे नहीं पाए समय को एक कविता
रोज़ लिखते जा रहे हैं जो

कौन समझाए उन्हें हर-बार
काव्य असि है—
छन्द उसकी मूँठ है रे !

छन्द कहता है करो मंथन समय का
शब्द संचालन करो ऐसे
खान से निकला हुआ सोना
साफ़ होकर दमकता जैसे

शब्द पानीदार है तो
वृक्ष है छतनार
वर्ना ठूँठ है रे !