चित्रकार / जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'
चित्रित करके भी राका का शशिमिलनोन्मुख पारावार,
चित्रकार, क्यों व्यक्त न करता उस असीम के भावोद्गार?
इतनी भी क्या तन्मयता, क्या इतना भी बेसुध होना!
खग-कलरव के बिना अवतरित करना ऊषा का सोना
चंचल चतुर चितेरे, चित्रित कर चातक की रट सुकुमार;
तन में मन में बाँध व्यथा की वीणा की व्याकुल झंकार।
तेरी आकृति मेरा स्वर, तव स्वर मेरी आकृति पावे;
मन रजनी के संधि-समय में, इन में विनिमय हो जावे।
झूम उठे तूलिका, रंग गा उठें, मूक पट बने मुखर;
अपने इस नीरव अंतर में भर दूँ अन्तर्तर का स्वर।
नील गगन में चमके ज्योंही, भाव-तारिका की मुस्कान,
मन जब तक साकार करे मैं सस्वर कर दूँ उसे अजान।
नील गगन की परम परिधि तक पहुँचा कर जगती के प्राण,
मदिर नयन, उर के अंतर की सीमा का कर दें अवसान।
तृषित, शून्य जग में वह निकले, कलाकार, हे करुणाकर,
फूटे उर के इंद्रधनुष से मेरे मानस का निर्झर!