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चराग़-ए-सब्र / ”काज़िम” जरवली
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कमान-ए-ज़ुल्म वो दस्ते ख़ता से मिलती है,
गले वो फूल की खुशबु हवा से मिलती है ।
बिखर रही है फ़ज़ा में अज़ान की शबनम,
वो रूहे लहन-ए-मुहम्मद सबा से मिलती है ।
समन्दरों को सुखा दे जो हिद्दत-ए-लब से,
हमें वो तशनालबी नैनवा से मिलती है ।
वफ़ा के दश्त में कासिम को देख लो सरवर,
फसील-ए-जिस्म तुम्हारी क़बा से मिलती है ।
चराग़-ए-सब्र को तनवीर बांटने के लिए,
बस एक रात की मोहलत जफा से मिलती है ।
बस एक वफ़ा की महक है जो चन्द प्यासों को,
फुरात तेरे किनारे हवा से मिलती है ।
कहा हुसैन ने मुझको छिपा लिया अम्मा,
यह रेत कितनी तुम्हारी रिदा से मिलती है ।। --काज़िम जरवली