भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तोरा मन दर्पण कहलाये / साहिर लुधियानवी

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:06, 24 दिसम्बर 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्राणी अपने प्रभु से पूछे किस विधि पाऊँ तोहे
प्रभु कहे तु मन को पा ले, पा जायेगा मोहे

तोरा मन दर्पण कहलाये
तोरा मन दर्पण कहलाये
भले बुरे सारे कर्मों को, देखे और दिखाये
तोरा मन दर्पण कहलाये
तोरा मन दर्पण कहलाये

मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोय
मन उजियारा जब जब फैले, जग उजियारा होय
इस उजले दर्पण पे प्राणी, धूल न जमने पाये
तोरा मन दर्पण कहलाये
तोरा मन दर्पण कहलाये

सुख की कलियाँ, दुख के कांटे, मन सबका आधार
मन से कोई बात छुपे ना, मन के नैन हज़ार
जग से चाहे भाग लो कोई, मन से भाग न पाये
तोरा मन दर्पण कहलाये
तोरा मन दर्पण कहलाये

तन की दौलत ढलती छाया मन का धन अनमोल
तन के कारण मन के धन को मत माटी में रौंद
मन की क़दर भुलानेवाला वीराँ जनम गवाये
तोरा मन दर्पण कहलाये
तोरा मन दर्पण कहलाये