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तुम कभी थे सूर्य / चंद्रसेन विराट

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कवि: चंद्रसेन विराट ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~* ~

तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गये।

थे कभी मुख्पृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये ॥


यवनिका बदली कि सारा दृष्य बदला मंच का ।

थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक आ गये ।।


वक्त का पहिया किसे कब कहां कुचले क्या पता ।

थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये ।।


देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं ।

जो कि अध्यादेश थे खुद अर्जियों तक आ गये ।।


देश के संदर्भ मे तुम बोल लेते खूब हो ।

बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये ।।


प्रेम के आख्यान मे तुम आत्मा से थे चले ।

घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये ॥


कुछ बिके आलोचकों की मानकर ही गीत को ।

तुम ॠचाएं मानते थे गालियों तक आ गये ॥


सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा ।

देवताओं से शुरु की वहशियों तक आ गये ॥