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प्रेम यानी कलाई में घड़ी नहीं / सुधीर सक्सेना

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जिस तरह गोदना गुदाने का
कोई वक़्त नहीं होता,
जिस तरह कोई वक़्त नहीं होता
बादलों के झरने का,
जिस तरह कभी भी आ सकती है झपकी
और कोई वक़्त नहीं होता आसमान में पुच्छल तारे के दीखने का
या उल्कापात का,
अचानक ज़ेहन में कौंधता है कोई ख़याल
बिना किसी भूमिका या पूर्वाभास के
जिस तरह बिना उत्प्रेरक के होती हैं औचक क्रियाएँ
और यह भी कि किस घड़ी कौन बन जाएगा
उत्प्रेरक किसी भौतिक या रासायनिक क्रिया या घटनाक्रम में
कोई नहीं जानता

जिस तरह गति
के सिद्धांत के ज्ञाता भी नहीं जानते
कि कब उतर जाएगी घिर्री से चेन
जिस तरह बद्दू भी नहीं जानते
कि कब कहाँ फूट पड़ेगा सोता ?
नहीं जानते विज्ञानवेत्ता
कि तड़ित चालक को ठेंगा दिखाते
कब कहाँ गिरेंगी बिजलियाँ
जिस तरह बूढ़े घड़ीसाज़ भी नहीं बता सकते घड़ी की उम्र
और न ही बूझ सकते हैं अपनी घड़ी के काँटें,
उसी तरह,
ऐन उसी तरह कोई नहीं बता सकता प्रेम की वेला
कीमियागरों के माथे पर शिकन
कि कब कैसे फूट पड़ता है प्रेम का रसायन
और तो और
प्रेम भी नहीं जानता कदापि
अपने आगमन की घड़ी
कि उसकी कलाई में घड़ी नहीं
और न ही उसका रेतघड़ी से कोई वास्ता