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आवाज़ों की महासभा / मुकुल दाहाल

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आवाज़ों के बीच
सुमधुर, कर्कश और तीखी
आवाज़ों की इस महासभा में
जो आती हैं बाहर, भीमकाय सीमेंट की दीवारों को तोड़
जानता हूँ मैं
कहीं बीच इनके, मेरी भी आवाज़ उपस्थित है ।

पहाड़ियों से गिरते झरने कुछ कह रहे हैं
आवाजें सड़कों पर चलते वेगवान वाहनों की
दे रही हैं धक्का एक दूसरे को
आवाज़ आकाश में ऊँचे उड़ते हवाईजहाज़ की
कर रही है अहम् अपनी ऊँचाई का

 मशीनें कारख़ानों की बड़बड़ा रही हैं ।

कलरव करती चिड़ियों की धुन
आवाज़ें पशुओं की
झनझनाती रात में झींगुरों की आवाज़ें
रहती हैं उपस्थित
जैसे उपस्थित रहती हैं यौवन से भरी औरतें तमाम

महासभा में
उपस्थित हैं सूक्ष्मतर आवाज़ें संवेदी
जो उपजती है विश्राम की गति के सबसे छोटे खंड से

अपने में तुष्ट पेटभर आवाज़ें
भूखी, सिकुड़ी आवाज़ें
और कालातीत आवाज़ें कला की
बैठ गई हैं अपनी-अपनी जगह ।

आवाज़ों की महासभा में
महाशक्तियों की आवाज़ उठ रही है समुद्र में ज्वार की तरह

मैं जानता हूँ यहीं इनके बीच कहीं शामिल है मेरी भी आवाज़
लेकिन मैं कर रहा हूँ कोशिश पहचानने की

कौनसी है मेरी आवाज़ ?
आखिर कौनसी है मेरी अपनी आवाज़ ?

अँग्रेज़ी से अनुवाद : अपर्णा मनोज