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दर्द का महाजन / रमेश रंजक
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परछाईं परस सरस फूल हुआ आँगन
भूल गया ब्याज कृपण दर्द का महाजन ।
बिन्दु हुई तृषित दृष्टि
सिन्धु हुआ अन्तर
गीत-गंध फैल गई
पंखुरी पुलिन पर
एक छन्द में डूबा घना अनमनापन ।
जल-तरंग ध्वनि लहरी
मन्द-मन्द पल-पल
दुहरा भुजबन्ध लगा
स्नेह का गुणनफल
उपसंघृत हुआ पोर-पोर का विभाजन ।