मेरे मन! / श्रीकांत वर्मा

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मेरे मन! सावन बन।

सरिता के कूलों पर
बहती पुरवाई-सी
सुधियाँ जब डोल जाएँ
कूप और तड़ागों में
बौरायी राधा-सी
ध्वनियाँ जब झाँक जाएँ
आषाढ़ी संध्या में
नागर के गीतों-से
सपने जब तैर जाएँ,

घुमड़ घुमड़ सावन बन!

मेरे मन! कंगन बन।

तुलसी के चौरे पर
शाम जले दीए-सी
प्रतीक्षा कुमारी हो।
चूड़ी की खनक, श्वेत
साड़ी की फिसलन की
घड़ी बड़ी प्यारी हो।
धुले हुए, खिले हुए
पौधों से बच्चें हों,
ममता की क्यारी हो।

स्नेह की कलाई में बिछल रहा कंगन बन
मेरे मन मधुवन बन।

गायों की खड़पड़ सुन
तालों की लहरें जब
सिहरे औ' जाग जाएँ,
नूतन उपमाओं-सी
चिड़िया जब नीड़ों से
निकल चहचहाएँ,
कच्ची पगडंडी पर
उभरे पदचिन्हों को
किरनें जब चीन्ह जाएँ,

मेरे मन! धूल-धूप
गंध रूप चंदन बन।
वंशी की पोरों में अगड़ाता यौवन बन।
मेरे मन!

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