भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये ज़िंदगी / निदा फ़ाज़ली
Kavita Kosh से
ये ज़िन्दगी
आज जो तुम्हारे
बदन कि छोटी-बड़ी नसों में
मचल रही है
तुम्हारे पैरों से
चल रही है
तुम्हारी आवाज़ में गले से
निकल रही है
तुम्हारे लफ़्ज़ों में
ढल रही है |
ये ज़िन्दगी.....!
जाने कितनी सदियों से
यूँ ही शक्लें
बदल रही है |
बदलती शक्लों
बदलते ज़िस्मों में
चलता फिरता ये इक शरारा
जो इस घडी
नाम है तुम्हारा !
इसी से साड़ी चहल-पहल है |
इसी से
रौशन है हर नज़ारा
सितारे तोड़ो
या घर बसाओ
अलम* उठाओ
या सर झुकाव
तुम्हारी आँखों कि रौशनी तक
है खेल सारा
ये खेल होगा नहीं दोबारा |
- जंग का निशान