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लिख नहीं पाता / हरे प्रकाश उपाध्याय

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लिख नहीं पाता
वैसे तो टालता हूं
 कि छोडो नहीं लिखूंगा
रहा नहीं जाता मगर
और उठाता हूं कलम
चलो लिखते हैं......
तो देर तक सूझता ही नहीं कुछ
क्या लिखूं
लिखता हूं बडी देर पर
कोई टेढा- मेढा शब्द
पारता हूं आडी तिरछी रेखऐं
काटता जाता हूं सब कुछ
बेतरह बरबाद हुआ कितना तो कोरा कागज
पर लिख नहीं पाया
ठीक ठीक एक भी हर्फ
कि भेज सकूं तुम्हें
इतनी मशक्कत के बावजूद
नहीं बचा कुछ भी
बेकार ही बीता समय
लिख नहीं सका कुछ
जो समझ सको तुम
गर भेज दूं
यह लहूलुहान कागज तो क्या समझोगी तुम
इसीलिये टालता हूं
पर कहां टालने देती हो तुम
इतनी तेा रहती हो सिर पर सवार
उठते बैठते
सोते जागते
पूरी पृथ्वी पर धकियाती हुई
आत्मा की बजाती हुयी घंटी
तुम भी क्या तो यकीन करोगी
कि रोज जो रंगता है
अखबारों के न जाने कितने
पन्ने के पन्ने
वह इतनी बेकरारी के बावजूद
लिख नहीं पाता
एक शब्द ही सही तुम्हें!