कवि-श्री / आरसी प्रसाद सिंह
आया बन जग में प्रातः रविः
मैं भारत-भाग्य विधाता कवि !
तोड़ता अलस जग-जाल जटिल;
सुकुमार, स्नेह-धारा-उर्म्मिल !
मैं पुरुष-पुरातन, प्रेम-दान;
चिर-कविर्मनीषी, सृष्टि-प्रान !!
बरसाती लौह-लेखनी पवि;
मैं विद्रोही इठलाता कवि !
सुर-तरु-सा कर सौरभ-प्रसार
सौंदर्य-पिपासा कुल, उदार;
शाश्वत, अनंत, अच्युत, अक्षर;
मैं चिर-अनादि, अतुलित, निर्जर !
सिकता पर अंकित करता छवि,
मैं नवयुग का निर्माता कवि !
छंदों में बाँध मरुत, सागर;
नाचता नित्य मैं नट-नागर !
शशि, उडु, ग्रह क्रम-क्रम से सभ्रम
करते मानस में संचक्रम !
प्राणों की अपने देता हवि;
मैं भारत-भाग्य विधाता कवि !
आँधी-सी मेरी गति अशांत;
मैं कुवलय-कोमल, कुमुद-कांत !
विग्रह, विनाश, मूर्च्छा, प्रमाद;
मैं अमृत-कल्पना, विष-विषाद !
उद्भासित, शाशित दिग्दिगंत
मेरी प्रतिभा से शुचि-ज्वलंत !!
आक्रांत कर रही प्रांत-प्रांत;
आँधी-सी मेरी गति अशांत !
(हंस : मार्च 1935)