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विपुल तरंग रे, विपुल तरंग रे / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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विपुल तरंग रे, विपुल तरंग रे!

उद्वेलित हुआ गगन, मगन हुए गत आगत
उज्ज्वल आलोक में झूमा जीवन चंचल ।
कैसी तरंग रे !
दोलित दिनकर — तारे — चंद्र रे !
काँपी फिर चमक उठी चेतना,
नाचे आकुल चंचल नाचे कुल ये जगत,
कूजे हृदय विहंग ।
विपुल तरंग रे, विपुल तरंग रे !!

मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल

('गीत पंचशती' में 'पूजा' के अन्तर्गत 45 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)