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रूप तुम्हारा / सोम ठाकुर

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रूप तुम्हारा मन में कस्तूरी बो गया,
मन जाने क्या से क्या हो गया !

लोहे से गुथी हुई जंग लगी साँसों में
फिर आदिम जंगल उग आये,
माथे से टकराकर उछली यह चाँदनी
धमनियों - शिराओं में डूबे - उतराए,
गाँठ -पुरे जालों से
उड़कर फिर मनपांखी
पहला तिनका
नंगी शांख पर सॅजो गया .
मन जाने क्या से क्या हो गया.

एक पर्त झन्नाहट की फैली
अंग अंग चिपक गयी नज़रे ,
एक पोर भर चेहरा छूकर यह तर्जनी
ले आई आमकद खबरें ,
तकिये पर टांक कर गुलाबों के संस्मरण
चाँदनी - बिंधा बादल
कंधे पर सो गया .
मन जाने क्या से क्या हो गया