भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्वर की तरंगें / सोम ठाकुर

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:40, 24 फ़रवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सोम ठाकुर |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <poem> गुथ गई ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गुथ गई स्वर की तरंगे
धमनियों के गर्भ में
उभरी शिराओ में

झुनझुनाते स्नायु
खिन्च्कर छूट गई हैं नसें
अब न वे खामोशियाँ
बढ़कर हृदय को कसें
जो मुझे दे दी विदाओं में

हो चली गुन गुनी कुछ और
मेरी रक्त धारा
फैलकर आपाद मस्तक
घूमता हैं तप्त पारा
राग -रंगा राज हंसों की कतारें
उड़ चली उजली दिशाओ में